अब्बा तुम तो झूठे हो
कहते हो आँखों का नूर
पर रखते हो हर्फ़ से दूर
मैंने सुना है कुरआन में ख़ुदा कहता है
पढो ख़ुदा के नाम पे
ना फ़र्क वहां औरत मर्द में
अमीर ग़रीब में
हिन्दू मुस्लिम में
फिर क्यूँ अब्बा तू
हिज़ाब पहना मुझे
बंद कर देते हो खिड़कियाँ
अब्बा तुम झूठे हो
शर्म ढूंढते हो कपड़ों में
आंखों में क्या कभी झँक नहीं पाए हो?
मजहब शिर्क की बात करते हो
कभी खून की रंगत बदल पाये हो?
भाई को सब है छूट
हिदायतों की अम्बार
मुझ पर ही लगाये हो
अब्बा तुम झूठे हो
कहते हो मुझे हूर
दामन में रश्क छुपाये हो
जब अपनों में ही नहीं महफूज़ मैं
किससे मुझे बचाये हो
कितना समेटूं
कितना सिमंटू
अब खुल जाने दो अब्बा
सांसो को ज़हन में
सपनो को आकाश में
जिंदगी को धरातल पर
Shama khan