सोमवार, 27 जून 2016

मोह को सीमा में बाँध ले रे मन
कतरन कतरन तुझे ये बिखरा ना दे,
अपने ही रंग को धुला न दे,
रंगहीन,बेरंग न बन
मोह को सिमा में बाँध ले रे मन।
भीतर तक जज्बा किया अब तक जो तूने,
खींच कर सत् तेरा ख़ाली न कर दे तुझे
सूख  कर अपनी कुमुदनी को,
जलने ना दे मन।
जोत जला कर रख उसकी बस
मिल जाना है आखिर में जिसकी
हर इक पल को ऐसे जी ले,
सीख रहा हो गुर जैसे जलने के
आँधी में, बिन तेल के
रोशन होने को
जहां में बिखरने को
बस अब तो
 बांध ले रे मन

कुछ तो बात है जिंदगी के हुसूलों में
टूट कर चाहें तो अश्क देती है
बेपरवाह बने तो सीने से लगा लेती है।