सोमवार, 26 सितंबर 2016

ममत्व

ममत्व माँ की जान है,धरा पर खुदा की पहचान है भीतर तक सींच कर जब इक किलकारी चहकती है,

अपना पूरा सत् निकआल माँ, फिर इक नया जीवन जीती है ।
हर पल ,हर सांस सौगात बन जाती है ,नन्हीं अघखुली आँखो में जब
                          पूरा संसार पा जाती है।
कोमल हथेलियों का स्पर्श पा लहलहा उठती है, ढलकती बूँदो में असीम संतोंष भर ,
जी लेती है इक सांस में पूरा जीवन ।

पर क्या बतलती आबोहवा इतनी विषेली हो गई?
ममता को तराजू में तोल,
नर -मादा के कॉटे छोटे -बड़े होने लगे ।
आपस में टकराते मादा भूर्ण निगलने लगे।
लीलने लगे इंसानियत, मनुष्यता,
ग्रहण लगने लगे सं वेदना पर,
रिसने लगे हर और से मवाद,
बंजर होने लगे धरा,
विवशता, लोभ,तृष्णा मिल
आँचल को तार-तार करने लगे।
तब कराह कर, सिसक कर
अजन्मी हो चाहे अनचाहे जन्मी
सवाल करती है मानवता से
पूछती है ममत्व से.......
गुहार लगाती, दर्द से भर कहती है
'मुझे जन्मने दो,
ख़ुदा की बख़्शी साँसे लेने दो,
आने दो धरा पर,जीने दो जीवन
मत थामों साँसे मेरी
महकने दो,खिलने दो।
आँगन में तेरे आँचल में तेरे।
माँ मुझे साँसे दो,
जीवन दो
ममता दो,
तेरा ही वजूद हूँ
ख़ुदा का नूर् हूँ
रोशन होने दो,माँ मुझे जीवन दो।
क्या ना विचलित होती होगी ममता?
क्या ना जागा होगा दुलार
औरत होने का अहसास तो ख़ुद में भी होगा।
नन्हीं मासूम हंसी में ज़रा झांको
आँगन में फुदकती मासूम कली है जो
इंसानियत की पहचान,मा नवता की धड़कन है जो।
दरकती इंसानियत खोखला ना कर दे हमें,
रिश्तों की दहलीज़ पर  ख़ाली हाथ खड़े,
अफ़सोस जताते
धंसते जाएंगे गर्त में,
गहरे गर्त में
नहीं रुके,
 नहीं जगे,
नहीं थमें
अब तो सोचना होगा,
उठना होगा,
बढ़ाने होंगे कदम
बचानी होंगी नस्लें
ख़ुदा के नूर् को,
बेटी के वजूद को।
 डॉ शमा खान


शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

किसी को जब याद कर कसक सी उठे,अपने पास होने का अहसास जगे,
हवाएँ रूह की जुबा जब बन जाए,हल्के से उसे सहला महक जाए।
ना रहे किसी बन्धन में,ना रिश्ते की मोहताज़।
बस रूह से रूह की पहचान,
जिन्दा होने का भान।

शमा खान

सोमवार, 27 जून 2016

मोह को सीमा में बाँध ले रे मन
कतरन कतरन तुझे ये बिखरा ना दे,
अपने ही रंग को धुला न दे,
रंगहीन,बेरंग न बन
मोह को सिमा में बाँध ले रे मन।
भीतर तक जज्बा किया अब तक जो तूने,
खींच कर सत् तेरा ख़ाली न कर दे तुझे
सूख  कर अपनी कुमुदनी को,
जलने ना दे मन।
जोत जला कर रख उसकी बस
मिल जाना है आखिर में जिसकी
हर इक पल को ऐसे जी ले,
सीख रहा हो गुर जैसे जलने के
आँधी में, बिन तेल के
रोशन होने को
जहां में बिखरने को
बस अब तो
 बांध ले रे मन

कुछ तो बात है जिंदगी के हुसूलों में
टूट कर चाहें तो अश्क देती है
बेपरवाह बने तो सीने से लगा लेती है।