शुक्रवार, 10 मार्च 2017


अब्बा तुम तो झूठे हो
कहते हो आँखों का नूर 
पर रखते हो हर्फ़ से दूर
मैंने सुना है कुरआन में ख़ुदा कहता है
पढो ख़ुदा के नाम पे
ना फ़र्क वहां औरत मर्द में
अमीर ग़रीब में
हिन्दू मुस्लिम में
फिर क्यूँ अब्बा तू
  हिज़ाब पहना मुझे
बंद कर देते हो खिड़कियाँ
अब्बा तुम झूठे हो
शर्म ढूंढते हो कपड़ों में
आंखों में क्या कभी झँक नहीं पाए हो?
मजहब शिर्क की बात करते हो
कभी खून की रंगत बदल पाये हो?
भाई को सब है छूट
हिदायतों की अम्बार
मुझ पर ही लगाये हो
अब्बा तुम झूठे हो
कहते हो मुझे हूर
दामन में रश्क छुपाये हो
जब अपनों में ही नहीं महफूज़ मैं
किससे मुझे बचाये हो
कितना समेटूं 
कितना सिमंटू
अब खुल जाने दो अब्बा
सांसो को ज़हन में
सपनो को आकाश में
जिंदगी को धरातल पर
Shama khan

बुधवार, 1 मार्च 2017


 कान्हा भूमि प्रेम में पगी
कण कण में ऐसी अलख जगी
कदम्ब भी करते यहाँ अठ खेली
पत्ते पत्ते में है प्रेम लगी
सुध बुध खो दे ऐसी पवनसुधा
 पुकारे मन हो बेचैन
तड़प उठी 
विकल सखी
कैसे मिलूं धाय
कभी छिप जाता कदम्ब कुंज मैं
कभी जमना में खिलखिलाता
कभी पवन में घुल
भीतर तक छू जाता
कभी कान्हा में
मैं कान्हा हो जाता।
मुस्कान तेरी कान्हा,ऐसी ह्र्दय में उतरे
कण कण में प्रतिबिम्ब हो
सृष्टि में पल -प्रतिपल नूर भरे।
पुष्प मुस्कुराये,लाज से गदराये
कुहैया कलख करती,प्रीत भर गाती।हवायें भी मदमस्त हो चूमती जाती,
जमना की लहरों में कान्हा तू
ऐसी आभ बिखेरे
शांत स्मित हो,सबके ताप हरे।
वृन्दावन की कुंजों में कान्हा
तेरी ही खुश्बू बिखरे,
हर ओर बजती मुरली धुन
विकलते मन को शीतल करे।
        सच कहती हूँ कान्हा
एक बार जो मन यहाँ पहुंच जाये
ना भाये राग रंग दूजा,
 बस तेरी प्रीत में डूब जाये।
फिर मैं कान्हा
कान्हा मैं हो जाऊं।
शमा खान

सोमवार, 26 सितंबर 2016

ममत्व

ममत्व माँ की जान है,धरा पर खुदा की पहचान है भीतर तक सींच कर जब इक किलकारी चहकती है,

अपना पूरा सत् निकआल माँ, फिर इक नया जीवन जीती है ।
हर पल ,हर सांस सौगात बन जाती है ,नन्हीं अघखुली आँखो में जब
                          पूरा संसार पा जाती है।
कोमल हथेलियों का स्पर्श पा लहलहा उठती है, ढलकती बूँदो में असीम संतोंष भर ,
जी लेती है इक सांस में पूरा जीवन ।

पर क्या बतलती आबोहवा इतनी विषेली हो गई?
ममता को तराजू में तोल,
नर -मादा के कॉटे छोटे -बड़े होने लगे ।
आपस में टकराते मादा भूर्ण निगलने लगे।
लीलने लगे इंसानियत, मनुष्यता,
ग्रहण लगने लगे सं वेदना पर,
रिसने लगे हर और से मवाद,
बंजर होने लगे धरा,
विवशता, लोभ,तृष्णा मिल
आँचल को तार-तार करने लगे।
तब कराह कर, सिसक कर
अजन्मी हो चाहे अनचाहे जन्मी
सवाल करती है मानवता से
पूछती है ममत्व से.......
गुहार लगाती, दर्द से भर कहती है
'मुझे जन्मने दो,
ख़ुदा की बख़्शी साँसे लेने दो,
आने दो धरा पर,जीने दो जीवन
मत थामों साँसे मेरी
महकने दो,खिलने दो।
आँगन में तेरे आँचल में तेरे।
माँ मुझे साँसे दो,
जीवन दो
ममता दो,
तेरा ही वजूद हूँ
ख़ुदा का नूर् हूँ
रोशन होने दो,माँ मुझे जीवन दो।
क्या ना विचलित होती होगी ममता?
क्या ना जागा होगा दुलार
औरत होने का अहसास तो ख़ुद में भी होगा।
नन्हीं मासूम हंसी में ज़रा झांको
आँगन में फुदकती मासूम कली है जो
इंसानियत की पहचान,मा नवता की धड़कन है जो।
दरकती इंसानियत खोखला ना कर दे हमें,
रिश्तों की दहलीज़ पर  ख़ाली हाथ खड़े,
अफ़सोस जताते
धंसते जाएंगे गर्त में,
गहरे गर्त में
नहीं रुके,
 नहीं जगे,
नहीं थमें
अब तो सोचना होगा,
उठना होगा,
बढ़ाने होंगे कदम
बचानी होंगी नस्लें
ख़ुदा के नूर् को,
बेटी के वजूद को।
 डॉ शमा खान


शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

किसी को जब याद कर कसक सी उठे,अपने पास होने का अहसास जगे,
हवाएँ रूह की जुबा जब बन जाए,हल्के से उसे सहला महक जाए।
ना रहे किसी बन्धन में,ना रिश्ते की मोहताज़।
बस रूह से रूह की पहचान,
जिन्दा होने का भान।

शमा खान

सोमवार, 27 जून 2016

मोह को सीमा में बाँध ले रे मन
कतरन कतरन तुझे ये बिखरा ना दे,
अपने ही रंग को धुला न दे,
रंगहीन,बेरंग न बन
मोह को सिमा में बाँध ले रे मन।
भीतर तक जज्बा किया अब तक जो तूने,
खींच कर सत् तेरा ख़ाली न कर दे तुझे
सूख  कर अपनी कुमुदनी को,
जलने ना दे मन।
जोत जला कर रख उसकी बस
मिल जाना है आखिर में जिसकी
हर इक पल को ऐसे जी ले,
सीख रहा हो गुर जैसे जलने के
आँधी में, बिन तेल के
रोशन होने को
जहां में बिखरने को
बस अब तो
 बांध ले रे मन

कुछ तो बात है जिंदगी के हुसूलों में
टूट कर चाहें तो अश्क देती है
बेपरवाह बने तो सीने से लगा लेती है।


रविवार, 22 मई 2011

ilmashama: keveta

ilmashama: keveta: "तन्हा होने पर ये जीवन का दर्शन समझ मे आता है . मै क्या हूँ , वो क्या है फ़लसफ़ा समझ मै आता है . जब रिश्तो म़..."